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कविता

इतना विरोध का स्वर

वंदना गुप्ता


पुरुष बिलबिलाता सा चीख उठा

"इतना विरोध का स्वर" कैसे

तेरी कविता में उपजा ...कवयित्री उर्फ स्त्री

कैसे तूने मेरे मानदंडों को

खोखला सिद्ध किया

कैसे तूने मेरे शाश्वत प्रेम पर

अपनी वाणी से प्रश्नचिह्न रखा

गर तेरी चाल पर

तेरे हाव भाव पर

तेरी चूड़ियों की खनक पर

तेरी जुल्फों की लट पर

तेरी बिंदिया पर

तेरे सोलह श्रृंगार पर

तेरे यौवन पर

तेरे त्याग और समर्पण पर

तेरी ममता और करुणा पर

तेरे अपनेपन पर

तेरे स्नेह और समझदारी पर

यदि मैंने कोई काव्य ग्रंथ रचा

या उसमे ना केवल तेरे बाहरी

बल्कि आंतरिक सौंदर्य को भी गढ़ा

तो बता, ओ स्त्री! क्या बुरा किया

जो अब तू दोषारोपण करती है

जो अब तू सारे दोष मेरे सर ही मढ़ती है

मैंने तो तेरे हृदय के उस पट को भी खोला है

जिसमे समाया सारा ब्रहमांड है

फिर क्यों तुझे मुझमें ही दोष दिखा है

और स्त्री के विरोध स्वर को सुन

पुरुष व्यथित हो गया...

बस यहीं तक उसका आकलन था

बस यहीं तक उसके काव्य का अंत था

और जहाँ कहीं अंत होता है

तो एक नई शुरुआत भी वहीं से हुआ करती है

बस इतना सा भेद ही वो न जान पाया

और जो स्त्री कल तक उसके आगे

घूँघट की ओट में सकुचाई शरमाई सी रहा करती थी

अपने मन के भावों को सिर्फ हावभाव से ही जनाया करती थी

कभी चूड़ी खनकाकर तो कभी पायल बजाकर

लबों पर तो जैसे शर्मोहया की सिलाई हुआ करती थी

या फिर स्त्री का ज्यादा बोलना या मुँह खोलना

अशोभनीय गिना जाता था इसलिए चुप रहा करती थी

गर आज यदि उसने मुँह खोला है

तो नहीं सोचा कभी

आखिर ऐसा हुआ क्यों ?

क्या कोई कमी रह गई ?

या कोई गलती हुई?

कौन सा ऐसा कारण था जो हवा का रुख गर्म हुआ

कौन सा ऐसा कारण था जो कुचला बीज भी अंकुरित हुआ

बस यही ना आकलन किया

और

गर स्त्री ने जो अपने भावों को शब्दों के तार में पिरोया

जाने क्यों पुरुष का पुरुषत्व खौल गया

आखिर कैसे इसमें इतना विद्रोह का जन्म हुआ

मैंने इसे कहो तो संसार का क्या सुख नहीं दिया

इधर स्त्री ने भी अपना बिगुल बजा दिया

और पुरुष को आखिर बता दिया

मैं स्त्री हूँ

स्त्रीत्व के भावों से परिपूर्ण

कोमलता मेरा गुण है

सहृदयता मेरी खूबी है

तो क्या इसी के नाम पर

अपना दोहन होने दूँ ?

बेशक तुमने मुझ पर प्रेम शास्त्र गढ़ा हो

बेशक तुमने मेरी भाव भंगिमाओं पर

अपने मन के भावों को उकेरा हो

कहो तो मैंने कब अस्वीकार किया ?

क्या मैं खुश नहीं हुई

जब भी तुमने मेरे सौंदर्य को व्याख्यातित करने को

नए-नए बिंब गढ़े, नए प्रतिमान बनाए

मैंने तो तुम्हारा हर कहा स्वीकारा

और सुनो ...आज भी स्वीकारती हूँ

जो तुम मेरी प्रशंसा में गीत गाते हो

वो मुझे भी अच्छे लगते हैं

मगर तुम ही न ये बात समझे

कि आखिर स्त्री चाहती क्या है ?

आखिर उसके मन पर कौन सी फाँस है

जो सदियों से गड़ी है

इन सबसे भी इतर एक तस्वीर होती है

क्यों तुमने सिर्फ अपने पक्ष से ही तस्वीर को देखा

क्यों तुमने दूसरा रुख तस्वीर का नहीं उल्टा

जरूरी नहीं सिर्फ सफेद ही हो हर पन्ना

कुछ पन्नों के स्याह रुखों पर भी

इतिहास लिखे होते हैं

और मेरी भावों की भूमि पर

मैंने सिर्फ इतना ही तो चाहा

जैसे तुम्हारी चाहतें आकार लेती हैं

जैसे तुम बेबाकी से कुछ भी कह देते हो

जैसे तुम जीने के आगे बढ़ने के

नए आयाम गढ़ते हो

जैसे तुम जीवन की मुख्यधारा में

गिने जाते हो

बस वैसा ही ओहदा मेरा हो

निर्णय लेने और क्रियान्वित करने का

हक भी बराबर हो किसी भी बात पर

जैसे और जब तुम्हें जरूरत हो

वैसे ही न मेरा उपयोग या उपभोग हो

सिर्फ वस्तु सी ना कोने में पड़ी रहूँ

आधी आबादी हूँ तो उसका योगदान

देश समाज और घर में बराबर देती रहूँ

मन के कोनों को उसी तरह बुहार सकूँ

जैसे तुम बेबाकी से सब कह जाते हो

पुरुष तुम हो या स्त्री मैं

आइना सा हमारा अक्स हो

एक दूजे में प्रतिबिंबित होता

और एक दूजे से अलग भी अपना एक मुकाम होता

कहो तो इतना सा चाहना क्या बुरा होता है

कहो तो गर इतने को मैं कहती हूँ

तो वाचाल, मुखर और विरोधी कहाती हूँ

कहो तो कहाँ से तुम्हें ऐसी नजर आती हूँ

जबकि आज समय ने करवट बदली है

इक्कीसवीं सदी में जब से कदम रखा है

मुझे कुछ आजादी का अनुभव हुआ है

मेरी साँसों पर पहरे जब से हटे हैं

देखो तो क्या मैंने सफलता और तरक्की के कम आयाम गढ़े हैं

क्योंकि

जब से मैं मुखर हुई हूँ

जब से मैंने तुम्हारी कमियाँ दर्शाई हैं

तुम्हारी सोच में भी परिवर्तन आया है

तभी तो आज मेरी बात को तवज्जो दी जाती है

और तुम्हारे मुख से मेरे लिए

"विरोध का स्वर" कहना

तुम्हारे विरोध की बू को दर्शाता है

जो ये बतलाता है

बेशक जब तुम्हारा ना वश चला

सभ्यताओं के परिवर्तन पर

तो मजबूरीवश तुम्हें स्वीकारना पड़ा

मगर अंतस्थ तो तुम्हारा

अब भी अकुलाता है

तभी तो तुम्हारे मुख से निकल जाता है

"इतना विरोध का स्वर"

मगर इसके लिए भी

मैं तुम्हें दोष नहीं देती हूँ

स्त्री हूँ न "गंभीरता मेरा आभूषण है"

यूँ ही नहीं कहा जाता है

क्योंकि ...जानती हूँ

जो पीढ़ियों से संस्कारित रूढ़ियों के बीज हैं

तुम्हारे लहू में

वो ही उबाल खा रहे हैं

बेशक वक्त के साथ बदलना पड़ रहा है

मगर सहज स्वीकार्यता के लिए

मुझे अभी तुमसे नहीं

तुम्हारी सोच से लड़ना होगा

और यही तेवर बनाए रखना होगा

यूँ ही विरोध के स्वर को जीवित रखना होगा

बस तुम्हारी सोच की जड़ पर ही

मुझे बार-बार प्रहार करना होगा

जैसे रस्सी के आने-जाने से

कुएँ की मेंड़ पर भी निशान बन जाता है

और वो जैसे जीवन का हिस्सा बन जाता है

कुछ वैसे ही तुम्हारी सोच पर

बार-बार होती दस्तक

जब तुम्हारे जीवन का अहम अंग बन जाएगी

तभी सहजता का समावेश होगा

तभी तुम्हें भी सब सहज स्वीकार्य होगा

फिर न कोई प्रयत्न करना होगा

फिर न ये बिलबिलाहट होगी

बस साँसों के आवागमन सी सहज स्वीकार्यता

जिस दिन तुम्हारे जीवन में, तुम्हारी सोच में होगी

स्त्री के विरोध स्वर खुद ही दमित हो जाएँगे

और नव सृजन से तुम्हारे हृदय भी प्रफुल्लित हो जाएँगे

मगर तब तक सभ्यताओं के लिहाफ बदलने तक

विरोध का स्वर जारी रखना नियति है उसकी बस इतना जान लो

और इस यज्ञ में अपने अहम की आहुति दे इसे पूर्ण करो

फिर सुरक्षित सभ्य समाज का निर्माण खुद-ब-खुद हो जाएगा

कहीं ना कोई विरोध का स्वर तुम्हें नजर आएगा

महज तुम्हारे अहम की मीनारों के धराशायी होने से

महज तुम्हारे संस्कारों के बीजों के नेस्तनाबूद होने से

तस्वीर का रुख बदल जाएगा

और एक नई उजास लिए एक नया सूर्योदय धरती पर भी हो जाएगा

और "इतना विरोध का स्वर" - "इतना सहयोग के स्वर" में बदल जाएगा


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